पत्थर पर घास उगाने चला हॅूं
दिलजलों के शहर में दिल लगाने चला हॅूं,
बेपनाह मोहब्बत की कद्र कहाँ यहाँ पर,
निर्धनों के शहर में कुछ मांगने चला हॅूं I
कहते मनाते थक गये हम,
आँसूओं की झील सी बन गयी,
वो किसी और के हाथों में जाने के लिये बेताब है,
दिल सोचता है कि उनके माथे की सिंदूर बन गये हम I
इस अर्थ की दुनिया में अर्थ है सबसे बड़ी,
वो हमसे दिल लगाना नहीं चाहते,
हमारे पास आना नहीं चाहते,
वो कहते हैं कि तुम्हारे पास,
ना घर है ना बस्ती, ना धन है ना कश्ती,
हमें तो चाहिये दुनिया की मौज मस्ती I
तुम गरीब हो तो प्यार कितना करोगे,
धनवालों के लिये प्यार मिलती है सस्ती I
आशीष कमल
लेखक योजना तथा वास्तुकला विद्यालय, विजयवाड़ा,
आन्ध्र प्रदेश में सहायक पुस्तकाल्याध्यक्ष के पद पर
कार्यरत हैं तथा अक्षय गौरव पत्रिका के उप-संपादक भी है।
आन्ध्र प्रदेश में सहायक पुस्तकाल्याध्यक्ष के पद पर
कार्यरत हैं तथा अक्षय गौरव पत्रिका के उप-संपादक भी है।
E-Mail- asheesh_kamal@yahoo.in
© उपरोक्त रचना के सर्वाधिकार लेखक एवं अक्षय गौरव पत्रिका पत्रिका के पास सुरक्षित है।
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